जावेद अहमद (जोगेन्द्र आशीष पाटिल) से एक दिलचस्प मुलाकात
interview
अहमद अव्वाह: अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू
जावेद अहमदः वालैकुमुस्सलाम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू
अहमदः जावेद साहब आप बंगलौर से कब तशरीफ़ लाये थे?
जावेदः मैं पिछले हफ्ते आया था, असल में, मैं वसीम भाई से बहुत ज़माने से कह रहा था कि हजरत से मुलाकात करा दो, मगर उनको छुट्टी नहीं मिल रही थी, इत्तिफाक़ से कम्पनी की तरफ से दिल्ली एक काम के लिए सफर का प्रोग्राम बनाया, मैं ने खदीजा से कहा कि चलो दोनों चलते हैं। हज़रत से मुलाकात हो जायेगी, वह बहुत खुश हुयी, अल्लाह का शुक्र है हज़रत से मुलाकात हो गयी।
अहमदः आपका वतन बंगलोर है?
जावेदः नहीं, हम लोग महाराष्ट्र में पूना के क़रीब के रहने वाले हैं, मेरी पत्नि खदीजा नागपुर के करीब एक शहर से ताल्लुक रखती हैं, अब उनके वालिद बंगलौर में रहने लगे हैं, वह बी.जे.पी. के असिस्टेंट सेक्रेट्री हैं और वह बडे एक्टिव लीडर हैं, उन्होंने नागपुर को, सिर्फ कर्नाटक में पार्टी का काम करने के लिए छोडा है, और उनके कर्नाटक आने से पार्टी को बडा फायदा हुआ, और अगर मैं कहूं कि कर्नाटक में मौजूदा फ़िरक़ेवाराना माहौल बनाने में ख़दीजा के वालिद का असल रोल है तो गलत न होगा।
अहमदः आपके वालिद किया करते हैं?
जावेदः मेरे वालिद साहब एक स्कूल के प्रिन्सपल हैं, पूना में, मैंने अपनी तालीम मुकम्मल की, वहीं से ग्रेजवेशन, फिर बी.टेक और एम.टेक किया, बंगलौर मैं विप्रो एक साफ्टवेयर की मशहूर कम्पनी है, इसी में मुझे मुलाज़मत मिल गयी है, उसी में काम करता हूं, अल्लाह का शुक्र है बहुत फरावानी का रोज़गार अल्लाह ने मुझे दे रखा है।
अहमदः आपकी पत्नि भी मुलाज़मत करती हैं ?
जावेदः करती थीं, अलहम्दु लिल्लाह मुसलमान होने के बाद मैंने उनसे मुलाज़मत छुडवा दी है।
अहमदः उनकी तालीम कहां तक है?
जावेदः वह भी एम.टेक हैं, बल्कि वह बी.टेक और एम.टेक में गोल्ड मेडलिस्ट हैं, वह एक बहुत मशहूर अमरीकी कम्पनी में काम कर रही थीं, उनको दो साल पहले, जब मुलाज़मत छोडी है एक लाख अठारह हज़ार रूपए तन्खाह मिलती थी।
अहमदः इतनी बडी तन्खाह छोडने पर राज़ी हो गयीं?
जावेदः जिस बडी चीज़ के लिए मुलाज़मत छोडी है, यह तन्खाह उसके पासंग में भी नहीं आयेगी, उन्होंने यह मुलाज़मत अपने रब अहकमुल हाकिमीन का हुक्म मानने के लिए छोडी है, अब आप बताईये कि अल्लाह के हुक्म के आगे यह एक लाख रूपए महीना की तन्खाह क्या हैसियत रखती है? और सच्ची बात यह है (रोते हुए) हम गंदे तो एक पैसा छोडने वाले नहीं थे, मेरे करीम रब को हम पर तरस आया कि उन्होंने हमें ईमान अता फरमाया और इस ईमान के लिए इस तन्खाह को छोडने की तौफीक भी दी।
अहमदः माशा अल्लाह बहुत मुबारक हो जावेद साहब, अल्लाह ताला हमें भी इस ईमान का कुछ हिस्सा अता फरमाए?
जावेदः आप कैसी बात कर रहे हैं, हम आपके सामने किस लायक हैं, मौलाना अहमद आपके पास तो ईमान का खजाना है, आप तो ईमान के सिलसिले में पुश्तैनी रईस हैं, और हम तो अभी सडकछाप रिटेल्रर(दुकानदार) हैं।
अहमदः असल में आपका ईमान खुद का कमाया हुआ है, और हम लोगों को वर्से में मिल गया है?
जावेदः हमारा भी खुद का कमाया हुआ कहां है, सिर्फ और सिर्फ हमारे अल्लाह की करमफरमायी कि हम निकम्मों को भीक में दे दिया है, अल्बत्ता हमें अभी-अभी मिला है। नयी-नयी नेमत मिलती है तो ज़रा कद्र तो होती है, शौक़ सा रहता है, नयी-नयी गाडी मिल जाए, नया घर मिल जाए तो ज़रा शौक सा तो रहता है, बस हमारा हाल यही है।
अहमदः आपको इस्लाम से कैसे दिलचस्पी हुई?
जावेदः यह एक दिलचस्प कहानी है।
अहमदः ज़रा तफसील इसकी मालूम करना चाहता हूं?
जावेदः 2006 में, मैं बंगलोर आया तो शान्ति नगर के पास एक होस्टिल में रहने लगा, हमारे करीब में मेरी अहलिया खदीजा का घर था, इत्तिफाक से दोनों का आफिस एक ही इलाके में था, हम लोग तकरीबन रोज एक बस से जाते थे। चन्द दिनों में हम लोगों में ताल्लुकात हुए, मैंने अपने घर जाकर खदीजा से (जिस का नाम उस वक्त अंजली था) शादी करने की खाहिश का इजहार किया, हमारे घर वाले, बंगलोर आए और उन्होंने इस लडकी को बहुत पसंद किया और मंगनी का सवाल डाल दिया, मैं भी चूंकि सूरत, शक्ल, खानदान और रोज़गार के लिहाज़ से ठीक-ठाक थ तो अंजली के घर वाले खुशी से तैयार हो गए, मंगनी हुई और फिर 12 जनवरी 2007 को हमारी शादी हो गयी, शादी में अंजली के वालिद ने एक अच्छा सा फलैट अपने घर के करीब दहेज में दिया, शादी उन्होंने आर.एस.एस. का संचालक होने की वजह से बहुत सादगी से की।
अहमदः अच्छा आर.एस.एस. के संचालक सादगी से शादी करते हैं?
जावेदः जी आपको मालूम नहीं, उनके यहां दहेज वगेरा देने की भी पाबन्दी है, यह फलैट भी उन्होंने बहुत छुप कर दिया है, लोगों को मालूम नहीं।
अहमदः हां तो आगे बताईए?
जावेदः मैं होस्टिल छोड कर अपनी अहलिया के साथ उनके फलैट में रहने लगा, मेरे साथ मेरी कम्पनी में जम्मू-कश्मीर के एक साहब वसीम नाम के मुलाज़मत करते हैं, सूरत से खूबसूरत मुसलमान, पूरी दाढी के साथ मुलाज़मत करते हैं, आफिस में पाबन्दी से जोहर, असर की नमाज़ अदा करते हैं, हम लोग उनको देख कर शुरू-शुरू में कशमीरी आतंकवादी समझते थे, मगर जैसे-जैसे दिन गुजरते गए पूरे दफ्तर में उनकी पहचान एक बहुत शरीफ और मोहतरम इन्सान की तरह हो गयी, शायद हमारे पूरे दफ्तर में लोग उनसे ज्यादा किसी का अहतराम करते हों, उनके अफसर भी उनको हुजूर व जनाब से बात करते हैं और यह सिर्फ उनकी दीनदारी की वजह से है, उनकी एक बहन जो उनके साथ बंगलोर में रहती हैं, फिज़ियोथरापिस्ट हैं, एक नर्सिंग होम में काम करती हैं, वह भी बुर्के और नक़ाब के साथ वहां जाती हैं और एक मुस्लिम नर्सिंग होम में सिर्फ औरतों को वर्जिश कराती हैं, यह दोनों भाई बहन आपके वालिद साहब से दिल्ली में बेअत हुए थे और मासिक ‘अरमुगान‘ पाबन्दी से पढते रहे हैं, दोनों दावत की धुन में लगे रहते हैं, वसीम साहब मौका पाते ही शुरू हो जाते हैं, दफ्तर के बहुत से लोगों को उन्होंने किताबें और कुरआन मजीद सलाम सेन्टर से लाकर दिए हैं, मेरे दफ्तर में मुझ से पहले दो लोग उनकी कोशिश से मुसलमान हो चुके थे, एक इतवार को उन्होंने मुझे अपने घर लंच पर आने की दावत दी और घर बुलाकर बहुत दर्द के साथ इस्लाम कबूल करने को कहा, मैंने कहा कि मैं इस्लाम को पसंद करता हूं और इस्लाम की तरफ से मेरा जहन बिल्कुल साफ हो गया है और मैं समझता हूं कि इस्लाम ही सच्चा मज़हब है, हिन्दू मज़हब खुद उलझी हुयी भूल-भुलैया है जिस में अक्ल के लिए कुछ भी नहीं, मगर मेरा खानदान खसूसन मेरी ससुराल जिसके साथ में रह रहा हूं, वह आर. एस. एस. और बी. जे. पी. का सरकर्दा खानदान है, मेरे लिए मुसलमान होना किस तरह मुमकिन है? वह रोने लगे और बोले आशीष भाई! मौत के बाद अगर खुदा न करे, ईमान के बगेर मौत आ गयी तो सिर्फ आपके सास-ससुर नहीं, सारी दुनिया के नेता मिल कर आपको दोज़ख से बचाना चाहेंगे तो बचा नहीं सकते, इस लिए आप अल्लाह के लिए सच्चे दिल से कलमा पढो और मुसलमान हो जाओ, आप किसी को मत बताना, मैं ने कहा ‘मुझे नमाज पढनी पडेगी, इस्लाम को फालो करना पडेगा, वर्ना मुसलमान होने का क्या फायदा होगा? वसीम साहब ने कहा कि छुप कर जैसा मौका मिले, आप नमाज वगैरा पढ लिया करना, अगर आप जिन्दगी भर एक नमाज भी न पढ सके, लेकिन सच्चे दिल से कलिमा पढ कर अन्दर से ईमान ले आये तो हमेशा की दोज़ख से तो बच जाऐंगे। वह बहुत दर्द से मुझे समझाते रहे, उनकी दर्दमन्दी ने मुझे मजबूर किया और मैं ने कलिमा पढ लिया, वसीम साहब ने कहा ‘दुनिया के लिए नहीं तो आखिरत के लिए आप अपना इस्लामी नाम रख लो’ मैंने कहा आप ही रख दो, वसीम ने जोगेन्द्र आशीष पाटिल के लिहाज से जावेद अहमद पाटिल रख दिया, फुरसत और लंच में वह मुझे नमाज वगैरा सिखाने लगे, अल्हम्दु लिल्लाह रफ्ता-रफ्ता इस्लाम मेरी पहली पसंद बन गया और अल्लाह का शुक्र है में बहुत जल्द पंज-वक्ता नमाजी बन गया।
अहमदः घर में आपने इत्तिला कर दी?
जावेदः नहीं-नहीं बिल्कुल नहीं! छुप-छुप कर नमाज पढता, कपडे बदलने के लिए बेडरूम का दरवाजा बंद करता और चुपके से नमाज पढ लेता, घर से बाहर दोस्तों के साथ जाने का बहाना बना कर दूर मस्जिद चला जाता, और रमजान आया तो मुझे रोज़ा रखना था, पैशाब के बहाने उठता, किचन जाता और कुछ दूध वगैरा सहरी में पी लेता, आफिस से लेट लौटता रास्ते में इफ्तार कर लेता, वसीम मुझे अंजली पर काम करने को कहते मगर मैं हिम्मत नहीं कर पाता कि उसने अपने घर बता दिया तो लोग मुझे जिन्दा न छोडेंगे। ‘‘आपकी अमानत- आपकी सेवा में’’ हज़रत की किताब घर ले कर गया और बेड पर डाल दी, मैं नहा कर आया तो देखा अंजली पढ रही है, मुझे देख कर बोली यह तो किसी मुसलमान मोलवी की लिखी हुयी किताब है, इसे आप क्यूं पढ रहे हैं? मैं ने टलाया कि एक दोस्त ने ज़बरदस्ती देदी थी, तुम ने देखी कैसी जादू-भरी किताब है? अंजली ने कहा नहीं-नहीं, मुझे भी यह किताब हमारे आफिस में एक लडकी ने दी है, वह पहले क्रिस्चिन(इसाई) थी, अब मुसलमान हो गयी है, मैं ने तो वापस कर दी, मौलाना अहमद साहब किस कद्र मुजाहिदे के साथ मैं ने रोजे रखे, बयान करना मुश्किल है, अब ईद आयी किसी तरह ईद की नमाज तो फरीज़र टाउन जाकर अदा कर आया, मगर घर आकर कमरा बंद करके बहुत रोया, मेरे अल्लाह मेरी ईद कब आयेगी, सब मुसलमान तो ईद मना रहे हैं और मैं तो कह भी नहीं सकता कि आज ईद है, दोपहर के बाद मैंने कमरा खोला और अंजली को तलाश किया तो वह दूसरे कमरे में दरवाजा बंद किए हुए थी। मैंने नोक किया, कुछ देर के बाद उसने दरवाजा खोला, देखा तो आंखें सूज रही हैं, मैंने कहा तुम क्यूं रो रही थी? बोली कोई बात नहीं, आज न जाने दिल पर कुछ बोझ सा है बस अन्दर से रोना आ रहा है, दिल को हल्का करने के लिए दिल में आया कि कमरा बन्द करके रो लूं, आप परेशान न हों कोई बात नहीं है, मैं ने कहा चलो डाक्टर को दिखा दूं, वह बोली मैं अन्दर कमरे में अपने डाक्टर को दिखाने गयी थी, मैं ने कहा तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? अन्दर कमरे में डाक्टर कहां से आया? उसने कहा हां-हां, मेरा डाक्टर इस कमरे में था, मेरा दिल मेरा डाक्टर है, मैं अपने डाक्टर के सामने अपनी बीमारी रोने गयी थी, मैं परेशान हो गया, बहुत सोचता रहा और फिर हम दोनों ने बोझ हल्का करने के लिए पार्क में जाने का प्रोग्राम बनाया।
एक साल और इसी तरह गुजर गया, रमजान आया, मैं इतवार को किसी बहाने घर से बाहर चला जाता, अंजली मुझ से मालूम करती कि दोपहर को खाना घर पर ही खायेंगे न? मैं कहता कि तुम मेरे लिए मत बनाना, मैं तो दोस्त के साथ खाउंगा, रोजा इफतार करके घर आता, मालूम करता दोपहर किया खाना बनाया था, तो वह कहती बस अकेले के लिए मैं किया बनाती, बस चाए वगैरा पी ली थी, मैं सोचता यह बेचारी मेरी वजह से खाने से रह गयी, ईद आयी तो हम दोनों का एक ही हाल कि मैं अलग कमरे में कमरा बंद करके अपने रब से अपनी ईद न होने की फरियाद करता, वह भी पहले साल की तरह दूसरे कमरे में से रोती हुयी आंखों से निकली, अब मुझे उसकी तरफ से फिक्र होने लगी, इसको कोई दिमागी बीमारी तो नहीं हो गयी है, वह कभी भी कमरा बंद कर लेती, ईद के दो महीने बाद एक रोज वह इतवार को दोपहर के तीन बजे कमरे में गयी और अन्दर से कमरा बन्द कर लिया, अब मुझे बेचैनी हो गयी। इत्तिफाक से खिडकी हल्की-सी खुली रह गयी थी, मैं ने दरीचे से देखा तो वह कमरे में नमाज पढ रही थी, नमाज के बाद वह बडी मिन्न्त के साथ देर तक दुआ मांगती रही, उसके बाद उसने कुरआन मजीद अपने पर्स से निकाल कर उसको चूमा, आंखों से लगाया और तिलावत की, मेरी खुशी बस देखने लायक थी, हिम्मत करके मैं ने अपने हाल को छुपाया। तकरीबन एक घंटे के बाद वह कमरे से निकली तो मैंने अपने हाल पर काबू पाकर उससे पूछा कि अंजली तुम अपना हाल मुझसे छुपा रही हो, सच बताओ किया परेशानी है? मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम ने किसी से दिल लगा लिया है, उसने कहा कि दिल तो आपको दे दिया था, अब मेरे पास है कहां कि दिल लगाउं? और वह बेहाल होकर फिर फूट-फूट कर रोने लगी, मैं ने बहुत ज़ोर दिया कि तुम मुझसे छुपाओगी तो किस से दिल का हाल बताओगी? मैं ने कहा कि अगर आज तुम ने मुझे अपनी परेशानी न बतायी तो जाकर कहीं खुदकशी कर लूंगा, अंजली ने कहा मुझे जो परेशानी है अगर मैंने तुम्हें बता दी तो तुम मुझे अपने घर से निकाल दोगे, मैंने कहा ‘यह घर तुम्हारा है मैं कहां तुम को अपने घर से निकालूंगा?’ वह बोली मुझे एक ऐसी बीमारी लग गयी है, जो लाइलाज है और अगर वह बीमारी मैं आपको बता दूंगी तो आप एक मिनट में मुझे छोड दोगे, मुझे ऐसी बीमारी लगी है जिसे आज के जमाने में बहुत गंदा समझा जाता है, मैंने कहा कि मुझे बताओ तो, मैंने तुम्हारे साथ जीने मरने के लिए तुम से शादी की है, उसने कहा कितने लोग हैं जो जीने मरने को कहते हैं, अगर मैं ने वह बीमारी जो मुझे लग गयी है आपको बता दी तो आप इस बीमारी को इस कद्र गुनाह समझते हैं कि मुझे छोड देगे, मैं ने कहा अंजली कैसी बात करती हो? मैं तुम्हें छोड दूंगा? क्या इतने दिन में कभी तुम्हें मुझसे बेवफाई का शक भी हुआ है, तुम्हें अन्दाजा नहीं कि मैं तुम्हें किस कद्र चाहता हूं, अंजली ने कहा अभी तक वाकई तुम मुझे चाहते हो मगर इस बीमारी का पता लगते ही आपका सारा प्यार खत्म हो जाएगा, मैं ने कहा नहीं, अंजली ऐसा न कहो, तुम मुझे अपनी परेशानी बताओ, मैं जिस तरह चाहो तुम्हें यकीन दिलाता हूं कि हर बीमारी और हर शर्त पर जीने मरने का साथी हूं, अंजली ने कहा यह बिल्कुल सच है तो लिख दो, मैं ने कहा खून से लिख दूं, उस ने कहा नहीं पेन से लिख दो, वह मुझ से लिपट गयी और बोली, मेरे लाडले, मेरे प्यारे, मैं ने सारी दुनिया को हुस्न व जमाल और प्यार देने वाले अकेले मालिक से दोस्ती कर ली है, और दिल को भाडखाना बनाने के बजाय उसी एक अकेले से लगा लिया है, और मैं ने बाप-दादा से चला आया धर्म बल्कि अधर्म छोड कर गन्दगी और आतंकवाद से बदनाम मज़हब इस्लाम कबूल कर लिया है, और अब मैं अंजली नहीं बल्कि खदीजा बन गयी हूं, आपने लिख तो दिया है, मगर आपको इखतियार है, इस्लाम के साथ कबूल करते हैं तो अच्छा है, वर्ना आप जैसे एक हजार रिश्तेदार मुझे छोड दें, तो मुझे इस्लाम ईमान के लिए खुशी से मन्जूर है, और अब यह भी सुन लिजिए कि फैसला आज ही कर लिजिए, अब मैं मुसलमान हूं, किसी काफिर और गैर-मुस्लिम शौहर के साथ मेरा रहना हराम है, अब अगर आपको मेरे साथ जीना मरना है, तो सिर्फ एक तरीका है कि आप मुसलमान हो जाऐं, वर्ना आज के बाद, आप छोडें या न छोडें मैं आपको छोड दूंगी।
मैं उससे बे इखतियार चिमट गया, मेरी खदीजा अगर तुम खदीजा बन गयी हो तो तुम्हारा आशीष तो कब से जावेद अहमद बन चुका है, वह खुशी से चीख पडी, कब से? तो मैं ने कहा 3 जनवरी 2009 से, वह बोली कैसे? मैंने पूरी तफसील बतायी, तो उसने बताया कि 1 जनवरी 2009 को खदीजा मुसलमान हुयी थी, उसके दफ्तर की एक इसाई लडकी जो मुसलमान हो कर आयशा बन गयी थी, उसने उसे कलिमा पढवाया था, असल में वसीम की बहन फरहीन ने अपनी एक दोस्त प्रियंका को जो गुलबर्गा की रहने वाली थी (डाक्टर रीहाना उनका नया नाम था) दावत देकर उनको कलिमा पढवाया था, रीहाना बडी दर्दमंद दाईया(इस्लाम की तरफ बुलाने वाली) हैं, डाक्टर रीहाना की दावत पर बाईस लोग गुलबर्गा और बंगलोर में मुसलमान हुए हैं, जिन में आयशा भी थी।
अहमदः माशा अल्लाह वाकई बडा अफसानवी वाकिआ है। आप लोगों को कितना मज़ा आया होगा?
जावेदः खदीजा भी दो साल तक रमजान के रोजे रखती रही और छुप-छुप कर नमाज पढती रही, ईद के दिन दोनों छुप-छुप कर रोते रहे, वह दिन में रोजे में मुझे खाने को नहीं पूछती थी कि मुझे साथ खाना न पडे, मैं भी उसी तरह टलाता रहा, मैं डरता था कि उसको पता चल गया तो अपने घर वालों से कह देगी तो मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा, और वह इस लिए नहीं बताती थी कि मैं उसे छोड दूंगा, दो साल तक हम दोनों मुसलमान रहे, एक घर में रहते रहे, एक दूसरे से छुपाते रहे, उसके बाद जब ईद आयी तो बस ईद थी, दो साल ईद पर रोने को याद करके हम नादानों तरह हंसते रहे, अल्हम्दु लिल्लाह सुम्मा अल्हम्दु लिल्लाह मेरे अल्लाह भी हम पर हंसते होंगे, हम पर कैसा प्यार और रहम आता होगा हमारे अल्लाह को।
अहमदः अब आप के घर वालों को इल्म हो गया कि नहीं?
जावेदः मेरे घर वालों को मालूम हो गया है, मेरा छोटा भाई और मेरी वालिदा अल्हम्दु लिल्लाह मुसलमान हो गयी हैं, वालिद साहब पढ रहे हैं, इन्शा अल्लाह वह इस्लाम में आ जायेंगे, अभी खदीजा ने अपनी छोटी बहन को बताया है, वह हमारे घर आकर इस्लाम पढ रही है। उनके घर वालों के लिए दुआ किजिए।
अहमदः माशा अल्लाह खूब है आपकी कहानी, बडे मजे की है, अब आपकी गाडी का समय हो गया है। मासिक ‘अरमुगान’ पढने वालों के लिए कोई पैग़ाम दिजिए?
जावेदः बस हमारे खानदान वालों के लिए दुआ की दरखास्त है और आप दुआ करें कि हम ने अपने हजरत से जिन्दगी को दावत के लिए वक्फ़ करने का जो अहद किया है, अल्लाह ताला हमसे कुछ काम ले ले।
अहमदः शुक्रिया। अस्सलामु अलैकुम
जावेदः वालैकुमुस्सलाम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू
साभार- उर्दू मासिक 'अरमुगान' , फरवरी 2001
interview
अहमद अव्वाह: अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू
जावेद अहमदः वालैकुमुस्सलाम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू
अहमदः जावेद साहब आप बंगलौर से कब तशरीफ़ लाये थे?
जावेदः मैं पिछले हफ्ते आया था, असल में, मैं वसीम भाई से बहुत ज़माने से कह रहा था कि हजरत से मुलाकात करा दो, मगर उनको छुट्टी नहीं मिल रही थी, इत्तिफाक़ से कम्पनी की तरफ से दिल्ली एक काम के लिए सफर का प्रोग्राम बनाया, मैं ने खदीजा से कहा कि चलो दोनों चलते हैं। हज़रत से मुलाकात हो जायेगी, वह बहुत खुश हुयी, अल्लाह का शुक्र है हज़रत से मुलाकात हो गयी।
अहमदः आपका वतन बंगलोर है?
जावेदः नहीं, हम लोग महाराष्ट्र में पूना के क़रीब के रहने वाले हैं, मेरी पत्नि खदीजा नागपुर के करीब एक शहर से ताल्लुक रखती हैं, अब उनके वालिद बंगलौर में रहने लगे हैं, वह बी.जे.पी. के असिस्टेंट सेक्रेट्री हैं और वह बडे एक्टिव लीडर हैं, उन्होंने नागपुर को, सिर्फ कर्नाटक में पार्टी का काम करने के लिए छोडा है, और उनके कर्नाटक आने से पार्टी को बडा फायदा हुआ, और अगर मैं कहूं कि कर्नाटक में मौजूदा फ़िरक़ेवाराना माहौल बनाने में ख़दीजा के वालिद का असल रोल है तो गलत न होगा।
अहमदः आपके वालिद किया करते हैं?
जावेदः मेरे वालिद साहब एक स्कूल के प्रिन्सपल हैं, पूना में, मैंने अपनी तालीम मुकम्मल की, वहीं से ग्रेजवेशन, फिर बी.टेक और एम.टेक किया, बंगलौर मैं विप्रो एक साफ्टवेयर की मशहूर कम्पनी है, इसी में मुझे मुलाज़मत मिल गयी है, उसी में काम करता हूं, अल्लाह का शुक्र है बहुत फरावानी का रोज़गार अल्लाह ने मुझे दे रखा है।
अहमदः आपकी पत्नि भी मुलाज़मत करती हैं ?
जावेदः करती थीं, अलहम्दु लिल्लाह मुसलमान होने के बाद मैंने उनसे मुलाज़मत छुडवा दी है।
अहमदः उनकी तालीम कहां तक है?
जावेदः वह भी एम.टेक हैं, बल्कि वह बी.टेक और एम.टेक में गोल्ड मेडलिस्ट हैं, वह एक बहुत मशहूर अमरीकी कम्पनी में काम कर रही थीं, उनको दो साल पहले, जब मुलाज़मत छोडी है एक लाख अठारह हज़ार रूपए तन्खाह मिलती थी।
अहमदः इतनी बडी तन्खाह छोडने पर राज़ी हो गयीं?
जावेदः जिस बडी चीज़ के लिए मुलाज़मत छोडी है, यह तन्खाह उसके पासंग में भी नहीं आयेगी, उन्होंने यह मुलाज़मत अपने रब अहकमुल हाकिमीन का हुक्म मानने के लिए छोडी है, अब आप बताईये कि अल्लाह के हुक्म के आगे यह एक लाख रूपए महीना की तन्खाह क्या हैसियत रखती है? और सच्ची बात यह है (रोते हुए) हम गंदे तो एक पैसा छोडने वाले नहीं थे, मेरे करीम रब को हम पर तरस आया कि उन्होंने हमें ईमान अता फरमाया और इस ईमान के लिए इस तन्खाह को छोडने की तौफीक भी दी।
अहमदः माशा अल्लाह बहुत मुबारक हो जावेद साहब, अल्लाह ताला हमें भी इस ईमान का कुछ हिस्सा अता फरमाए?
जावेदः आप कैसी बात कर रहे हैं, हम आपके सामने किस लायक हैं, मौलाना अहमद आपके पास तो ईमान का खजाना है, आप तो ईमान के सिलसिले में पुश्तैनी रईस हैं, और हम तो अभी सडकछाप रिटेल्रर(दुकानदार) हैं।
अहमदः असल में आपका ईमान खुद का कमाया हुआ है, और हम लोगों को वर्से में मिल गया है?
जावेदः हमारा भी खुद का कमाया हुआ कहां है, सिर्फ और सिर्फ हमारे अल्लाह की करमफरमायी कि हम निकम्मों को भीक में दे दिया है, अल्बत्ता हमें अभी-अभी मिला है। नयी-नयी नेमत मिलती है तो ज़रा कद्र तो होती है, शौक़ सा रहता है, नयी-नयी गाडी मिल जाए, नया घर मिल जाए तो ज़रा शौक सा तो रहता है, बस हमारा हाल यही है।
अहमदः आपको इस्लाम से कैसे दिलचस्पी हुई?
जावेदः यह एक दिलचस्प कहानी है।
अहमदः ज़रा तफसील इसकी मालूम करना चाहता हूं?
जावेदः 2006 में, मैं बंगलोर आया तो शान्ति नगर के पास एक होस्टिल में रहने लगा, हमारे करीब में मेरी अहलिया खदीजा का घर था, इत्तिफाक से दोनों का आफिस एक ही इलाके में था, हम लोग तकरीबन रोज एक बस से जाते थे। चन्द दिनों में हम लोगों में ताल्लुकात हुए, मैंने अपने घर जाकर खदीजा से (जिस का नाम उस वक्त अंजली था) शादी करने की खाहिश का इजहार किया, हमारे घर वाले, बंगलोर आए और उन्होंने इस लडकी को बहुत पसंद किया और मंगनी का सवाल डाल दिया, मैं भी चूंकि सूरत, शक्ल, खानदान और रोज़गार के लिहाज़ से ठीक-ठाक थ तो अंजली के घर वाले खुशी से तैयार हो गए, मंगनी हुई और फिर 12 जनवरी 2007 को हमारी शादी हो गयी, शादी में अंजली के वालिद ने एक अच्छा सा फलैट अपने घर के करीब दहेज में दिया, शादी उन्होंने आर.एस.एस. का संचालक होने की वजह से बहुत सादगी से की।
अहमदः अच्छा आर.एस.एस. के संचालक सादगी से शादी करते हैं?
जावेदः जी आपको मालूम नहीं, उनके यहां दहेज वगेरा देने की भी पाबन्दी है, यह फलैट भी उन्होंने बहुत छुप कर दिया है, लोगों को मालूम नहीं।
अहमदः हां तो आगे बताईए?
जावेदः मैं होस्टिल छोड कर अपनी अहलिया के साथ उनके फलैट में रहने लगा, मेरे साथ मेरी कम्पनी में जम्मू-कश्मीर के एक साहब वसीम नाम के मुलाज़मत करते हैं, सूरत से खूबसूरत मुसलमान, पूरी दाढी के साथ मुलाज़मत करते हैं, आफिस में पाबन्दी से जोहर, असर की नमाज़ अदा करते हैं, हम लोग उनको देख कर शुरू-शुरू में कशमीरी आतंकवादी समझते थे, मगर जैसे-जैसे दिन गुजरते गए पूरे दफ्तर में उनकी पहचान एक बहुत शरीफ और मोहतरम इन्सान की तरह हो गयी, शायद हमारे पूरे दफ्तर में लोग उनसे ज्यादा किसी का अहतराम करते हों, उनके अफसर भी उनको हुजूर व जनाब से बात करते हैं और यह सिर्फ उनकी दीनदारी की वजह से है, उनकी एक बहन जो उनके साथ बंगलोर में रहती हैं, फिज़ियोथरापिस्ट हैं, एक नर्सिंग होम में काम करती हैं, वह भी बुर्के और नक़ाब के साथ वहां जाती हैं और एक मुस्लिम नर्सिंग होम में सिर्फ औरतों को वर्जिश कराती हैं, यह दोनों भाई बहन आपके वालिद साहब से दिल्ली में बेअत हुए थे और मासिक ‘अरमुगान‘ पाबन्दी से पढते रहे हैं, दोनों दावत की धुन में लगे रहते हैं, वसीम साहब मौका पाते ही शुरू हो जाते हैं, दफ्तर के बहुत से लोगों को उन्होंने किताबें और कुरआन मजीद सलाम सेन्टर से लाकर दिए हैं, मेरे दफ्तर में मुझ से पहले दो लोग उनकी कोशिश से मुसलमान हो चुके थे, एक इतवार को उन्होंने मुझे अपने घर लंच पर आने की दावत दी और घर बुलाकर बहुत दर्द के साथ इस्लाम कबूल करने को कहा, मैंने कहा कि मैं इस्लाम को पसंद करता हूं और इस्लाम की तरफ से मेरा जहन बिल्कुल साफ हो गया है और मैं समझता हूं कि इस्लाम ही सच्चा मज़हब है, हिन्दू मज़हब खुद उलझी हुयी भूल-भुलैया है जिस में अक्ल के लिए कुछ भी नहीं, मगर मेरा खानदान खसूसन मेरी ससुराल जिसके साथ में रह रहा हूं, वह आर. एस. एस. और बी. जे. पी. का सरकर्दा खानदान है, मेरे लिए मुसलमान होना किस तरह मुमकिन है? वह रोने लगे और बोले आशीष भाई! मौत के बाद अगर खुदा न करे, ईमान के बगेर मौत आ गयी तो सिर्फ आपके सास-ससुर नहीं, सारी दुनिया के नेता मिल कर आपको दोज़ख से बचाना चाहेंगे तो बचा नहीं सकते, इस लिए आप अल्लाह के लिए सच्चे दिल से कलमा पढो और मुसलमान हो जाओ, आप किसी को मत बताना, मैं ने कहा ‘मुझे नमाज पढनी पडेगी, इस्लाम को फालो करना पडेगा, वर्ना मुसलमान होने का क्या फायदा होगा? वसीम साहब ने कहा कि छुप कर जैसा मौका मिले, आप नमाज वगैरा पढ लिया करना, अगर आप जिन्दगी भर एक नमाज भी न पढ सके, लेकिन सच्चे दिल से कलिमा पढ कर अन्दर से ईमान ले आये तो हमेशा की दोज़ख से तो बच जाऐंगे। वह बहुत दर्द से मुझे समझाते रहे, उनकी दर्दमन्दी ने मुझे मजबूर किया और मैं ने कलिमा पढ लिया, वसीम साहब ने कहा ‘दुनिया के लिए नहीं तो आखिरत के लिए आप अपना इस्लामी नाम रख लो’ मैंने कहा आप ही रख दो, वसीम ने जोगेन्द्र आशीष पाटिल के लिहाज से जावेद अहमद पाटिल रख दिया, फुरसत और लंच में वह मुझे नमाज वगैरा सिखाने लगे, अल्हम्दु लिल्लाह रफ्ता-रफ्ता इस्लाम मेरी पहली पसंद बन गया और अल्लाह का शुक्र है में बहुत जल्द पंज-वक्ता नमाजी बन गया।
अहमदः घर में आपने इत्तिला कर दी?
जावेदः नहीं-नहीं बिल्कुल नहीं! छुप-छुप कर नमाज पढता, कपडे बदलने के लिए बेडरूम का दरवाजा बंद करता और चुपके से नमाज पढ लेता, घर से बाहर दोस्तों के साथ जाने का बहाना बना कर दूर मस्जिद चला जाता, और रमजान आया तो मुझे रोज़ा रखना था, पैशाब के बहाने उठता, किचन जाता और कुछ दूध वगैरा सहरी में पी लेता, आफिस से लेट लौटता रास्ते में इफ्तार कर लेता, वसीम मुझे अंजली पर काम करने को कहते मगर मैं हिम्मत नहीं कर पाता कि उसने अपने घर बता दिया तो लोग मुझे जिन्दा न छोडेंगे। ‘‘आपकी अमानत- आपकी सेवा में’’ हज़रत की किताब घर ले कर गया और बेड पर डाल दी, मैं नहा कर आया तो देखा अंजली पढ रही है, मुझे देख कर बोली यह तो किसी मुसलमान मोलवी की लिखी हुयी किताब है, इसे आप क्यूं पढ रहे हैं? मैं ने टलाया कि एक दोस्त ने ज़बरदस्ती देदी थी, तुम ने देखी कैसी जादू-भरी किताब है? अंजली ने कहा नहीं-नहीं, मुझे भी यह किताब हमारे आफिस में एक लडकी ने दी है, वह पहले क्रिस्चिन(इसाई) थी, अब मुसलमान हो गयी है, मैं ने तो वापस कर दी, मौलाना अहमद साहब किस कद्र मुजाहिदे के साथ मैं ने रोजे रखे, बयान करना मुश्किल है, अब ईद आयी किसी तरह ईद की नमाज तो फरीज़र टाउन जाकर अदा कर आया, मगर घर आकर कमरा बंद करके बहुत रोया, मेरे अल्लाह मेरी ईद कब आयेगी, सब मुसलमान तो ईद मना रहे हैं और मैं तो कह भी नहीं सकता कि आज ईद है, दोपहर के बाद मैंने कमरा खोला और अंजली को तलाश किया तो वह दूसरे कमरे में दरवाजा बंद किए हुए थी। मैंने नोक किया, कुछ देर के बाद उसने दरवाजा खोला, देखा तो आंखें सूज रही हैं, मैंने कहा तुम क्यूं रो रही थी? बोली कोई बात नहीं, आज न जाने दिल पर कुछ बोझ सा है बस अन्दर से रोना आ रहा है, दिल को हल्का करने के लिए दिल में आया कि कमरा बन्द करके रो लूं, आप परेशान न हों कोई बात नहीं है, मैं ने कहा चलो डाक्टर को दिखा दूं, वह बोली मैं अन्दर कमरे में अपने डाक्टर को दिखाने गयी थी, मैं ने कहा तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? अन्दर कमरे में डाक्टर कहां से आया? उसने कहा हां-हां, मेरा डाक्टर इस कमरे में था, मेरा दिल मेरा डाक्टर है, मैं अपने डाक्टर के सामने अपनी बीमारी रोने गयी थी, मैं परेशान हो गया, बहुत सोचता रहा और फिर हम दोनों ने बोझ हल्का करने के लिए पार्क में जाने का प्रोग्राम बनाया।
एक साल और इसी तरह गुजर गया, रमजान आया, मैं इतवार को किसी बहाने घर से बाहर चला जाता, अंजली मुझ से मालूम करती कि दोपहर को खाना घर पर ही खायेंगे न? मैं कहता कि तुम मेरे लिए मत बनाना, मैं तो दोस्त के साथ खाउंगा, रोजा इफतार करके घर आता, मालूम करता दोपहर किया खाना बनाया था, तो वह कहती बस अकेले के लिए मैं किया बनाती, बस चाए वगैरा पी ली थी, मैं सोचता यह बेचारी मेरी वजह से खाने से रह गयी, ईद आयी तो हम दोनों का एक ही हाल कि मैं अलग कमरे में कमरा बंद करके अपने रब से अपनी ईद न होने की फरियाद करता, वह भी पहले साल की तरह दूसरे कमरे में से रोती हुयी आंखों से निकली, अब मुझे उसकी तरफ से फिक्र होने लगी, इसको कोई दिमागी बीमारी तो नहीं हो गयी है, वह कभी भी कमरा बंद कर लेती, ईद के दो महीने बाद एक रोज वह इतवार को दोपहर के तीन बजे कमरे में गयी और अन्दर से कमरा बन्द कर लिया, अब मुझे बेचैनी हो गयी। इत्तिफाक से खिडकी हल्की-सी खुली रह गयी थी, मैं ने दरीचे से देखा तो वह कमरे में नमाज पढ रही थी, नमाज के बाद वह बडी मिन्न्त के साथ देर तक दुआ मांगती रही, उसके बाद उसने कुरआन मजीद अपने पर्स से निकाल कर उसको चूमा, आंखों से लगाया और तिलावत की, मेरी खुशी बस देखने लायक थी, हिम्मत करके मैं ने अपने हाल को छुपाया। तकरीबन एक घंटे के बाद वह कमरे से निकली तो मैंने अपने हाल पर काबू पाकर उससे पूछा कि अंजली तुम अपना हाल मुझसे छुपा रही हो, सच बताओ किया परेशानी है? मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम ने किसी से दिल लगा लिया है, उसने कहा कि दिल तो आपको दे दिया था, अब मेरे पास है कहां कि दिल लगाउं? और वह बेहाल होकर फिर फूट-फूट कर रोने लगी, मैं ने बहुत ज़ोर दिया कि तुम मुझसे छुपाओगी तो किस से दिल का हाल बताओगी? मैं ने कहा कि अगर आज तुम ने मुझे अपनी परेशानी न बतायी तो जाकर कहीं खुदकशी कर लूंगा, अंजली ने कहा मुझे जो परेशानी है अगर मैंने तुम्हें बता दी तो तुम मुझे अपने घर से निकाल दोगे, मैंने कहा ‘यह घर तुम्हारा है मैं कहां तुम को अपने घर से निकालूंगा?’ वह बोली मुझे एक ऐसी बीमारी लग गयी है, जो लाइलाज है और अगर वह बीमारी मैं आपको बता दूंगी तो आप एक मिनट में मुझे छोड दोगे, मुझे ऐसी बीमारी लगी है जिसे आज के जमाने में बहुत गंदा समझा जाता है, मैंने कहा कि मुझे बताओ तो, मैंने तुम्हारे साथ जीने मरने के लिए तुम से शादी की है, उसने कहा कितने लोग हैं जो जीने मरने को कहते हैं, अगर मैं ने वह बीमारी जो मुझे लग गयी है आपको बता दी तो आप इस बीमारी को इस कद्र गुनाह समझते हैं कि मुझे छोड देगे, मैं ने कहा अंजली कैसी बात करती हो? मैं तुम्हें छोड दूंगा? क्या इतने दिन में कभी तुम्हें मुझसे बेवफाई का शक भी हुआ है, तुम्हें अन्दाजा नहीं कि मैं तुम्हें किस कद्र चाहता हूं, अंजली ने कहा अभी तक वाकई तुम मुझे चाहते हो मगर इस बीमारी का पता लगते ही आपका सारा प्यार खत्म हो जाएगा, मैं ने कहा नहीं, अंजली ऐसा न कहो, तुम मुझे अपनी परेशानी बताओ, मैं जिस तरह चाहो तुम्हें यकीन दिलाता हूं कि हर बीमारी और हर शर्त पर जीने मरने का साथी हूं, अंजली ने कहा यह बिल्कुल सच है तो लिख दो, मैं ने कहा खून से लिख दूं, उस ने कहा नहीं पेन से लिख दो, वह मुझ से लिपट गयी और बोली, मेरे लाडले, मेरे प्यारे, मैं ने सारी दुनिया को हुस्न व जमाल और प्यार देने वाले अकेले मालिक से दोस्ती कर ली है, और दिल को भाडखाना बनाने के बजाय उसी एक अकेले से लगा लिया है, और मैं ने बाप-दादा से चला आया धर्म बल्कि अधर्म छोड कर गन्दगी और आतंकवाद से बदनाम मज़हब इस्लाम कबूल कर लिया है, और अब मैं अंजली नहीं बल्कि खदीजा बन गयी हूं, आपने लिख तो दिया है, मगर आपको इखतियार है, इस्लाम के साथ कबूल करते हैं तो अच्छा है, वर्ना आप जैसे एक हजार रिश्तेदार मुझे छोड दें, तो मुझे इस्लाम ईमान के लिए खुशी से मन्जूर है, और अब यह भी सुन लिजिए कि फैसला आज ही कर लिजिए, अब मैं मुसलमान हूं, किसी काफिर और गैर-मुस्लिम शौहर के साथ मेरा रहना हराम है, अब अगर आपको मेरे साथ जीना मरना है, तो सिर्फ एक तरीका है कि आप मुसलमान हो जाऐं, वर्ना आज के बाद, आप छोडें या न छोडें मैं आपको छोड दूंगी।
मैं उससे बे इखतियार चिमट गया, मेरी खदीजा अगर तुम खदीजा बन गयी हो तो तुम्हारा आशीष तो कब से जावेद अहमद बन चुका है, वह खुशी से चीख पडी, कब से? तो मैं ने कहा 3 जनवरी 2009 से, वह बोली कैसे? मैंने पूरी तफसील बतायी, तो उसने बताया कि 1 जनवरी 2009 को खदीजा मुसलमान हुयी थी, उसके दफ्तर की एक इसाई लडकी जो मुसलमान हो कर आयशा बन गयी थी, उसने उसे कलिमा पढवाया था, असल में वसीम की बहन फरहीन ने अपनी एक दोस्त प्रियंका को जो गुलबर्गा की रहने वाली थी (डाक्टर रीहाना उनका नया नाम था) दावत देकर उनको कलिमा पढवाया था, रीहाना बडी दर्दमंद दाईया(इस्लाम की तरफ बुलाने वाली) हैं, डाक्टर रीहाना की दावत पर बाईस लोग गुलबर्गा और बंगलोर में मुसलमान हुए हैं, जिन में आयशा भी थी।
अहमदः माशा अल्लाह वाकई बडा अफसानवी वाकिआ है। आप लोगों को कितना मज़ा आया होगा?
जावेदः खदीजा भी दो साल तक रमजान के रोजे रखती रही और छुप-छुप कर नमाज पढती रही, ईद के दिन दोनों छुप-छुप कर रोते रहे, वह दिन में रोजे में मुझे खाने को नहीं पूछती थी कि मुझे साथ खाना न पडे, मैं भी उसी तरह टलाता रहा, मैं डरता था कि उसको पता चल गया तो अपने घर वालों से कह देगी तो मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा, और वह इस लिए नहीं बताती थी कि मैं उसे छोड दूंगा, दो साल तक हम दोनों मुसलमान रहे, एक घर में रहते रहे, एक दूसरे से छुपाते रहे, उसके बाद जब ईद आयी तो बस ईद थी, दो साल ईद पर रोने को याद करके हम नादानों तरह हंसते रहे, अल्हम्दु लिल्लाह सुम्मा अल्हम्दु लिल्लाह मेरे अल्लाह भी हम पर हंसते होंगे, हम पर कैसा प्यार और रहम आता होगा हमारे अल्लाह को।
अहमदः अब आप के घर वालों को इल्म हो गया कि नहीं?
जावेदः मेरे घर वालों को मालूम हो गया है, मेरा छोटा भाई और मेरी वालिदा अल्हम्दु लिल्लाह मुसलमान हो गयी हैं, वालिद साहब पढ रहे हैं, इन्शा अल्लाह वह इस्लाम में आ जायेंगे, अभी खदीजा ने अपनी छोटी बहन को बताया है, वह हमारे घर आकर इस्लाम पढ रही है। उनके घर वालों के लिए दुआ किजिए।
अहमदः माशा अल्लाह खूब है आपकी कहानी, बडे मजे की है, अब आपकी गाडी का समय हो गया है। मासिक ‘अरमुगान’ पढने वालों के लिए कोई पैग़ाम दिजिए?
जावेदः बस हमारे खानदान वालों के लिए दुआ की दरखास्त है और आप दुआ करें कि हम ने अपने हजरत से जिन्दगी को दावत के लिए वक्फ़ करने का जो अहद किया है, अल्लाह ताला हमसे कुछ काम ले ले।
अहमदः शुक्रिया। अस्सलामु अलैकुम
जावेदः वालैकुमुस्सलाम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू
साभार- उर्दू मासिक 'अरमुगान' , फरवरी 2001
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