अमेरिका के तीन ईसाई पादरी इस्लाम की शरण में आ गए। उन्हीं तीन पादरियों में से एक पूर्व ईसाई पादरी यूसुफ एस्टीज की जुबानी कि कैसे वे जुटे थे एक मिस्री मुसलमान को ईसाई बनाने में, मगर जब सत्य सामने आया तो खुद ने अपना लिया इस्लाम।
बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं कि आखिर मैं एक ईसाई पादरी से मुसलमान कैसे बन गया? यह भी उस दौर में जब इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ हम नेगेटिव माहौल पाते हैं। मैं उन सभी का शुक्रिया अदा करता हूं जो मेरे इस्लाम अपनाने की दास्तां में दिलचस्पी ले रहे हैं। लीजिए आपके सामने पेश है मेरी इस्लाम अपनाने की दास्तां-
मैं मध्यम पश्चिम के एक कट्टर इसाई घराने में पैदा हुआ था। सच्चाई यह है कि मेरे परिवार वालों और पूर्वजों ने अमेरिका में कई चर्च और स्कूल कायम किए। 1949 में जब मैं प्राइमेरी स्कूल में था तभी हमारा परिवार टेक्सास के हाउस्टन शहर में बस गया। हम नियमित चर्च जाते थे। बारह साल की उम्र में मुझे ईसाई धार्मिक विधि बेपटिस्ट कराई गई। किशोर अवस्था में मैं अन्य ईसाई समुदायों के चर्च,मान्यताओं,आस्था आदि के बारे में जानने को उत्सुक रहता था। मुझे गोस्पेल को जानने की तीव्र लालसा थी। धर्म के मामले में मेरी खोज और दिलचस्पी सिर्फ ईसाई धर्म तक ही सीमित नहीं थी हिंदू,यहूदी,बोद्ध धर्म ही नहीं बल्कि दर्शनशास्त्र और अमेरिकी मूल निवासियों की आस्था और विश्वास भी मेरे अध्ययन में शामिल रहे। सिर्फ इस्लाम ही ऐसा धर्म था जिसको मैंने गंभीरता से नहीं लिया था।
इस दौरान मेरी दिलचस्पी संगीत में बढ़ गई। खासतौर से गोस्पल और क्लासिकल संगीत में। चूकि मेरा पूरा परिवार धर्म और संगीत के क्षेत्र से जुड़ा हुआ था इसलिए मैं भी इन दोनों के अध्ययन में जुट गया। और इस तरह मैं कई गिरिजाघरों से संगीत पादरी के रूप में जुड़ गया। मैंने 1960 में लोगों को की बोर्ड के जरिए संगीत की शिक्षा दी और फिर 1963 में लॉरेल,मेरीलेण्ड में अपना ‘एस्टीज म्यूजिक स्टूडियो’ खोल लिया। इसके बाद मैंने करीब तीस साल तक अपने पिता के साथ मिलकर कई बिजनेस प्रोजेक्ट तैयार किए। हमने बहुत सारे मनोरंजन प्रोग्राम बनाए और कई शो किए। हमने टेक्सास और ऑकलाहोम से फ्लोरिडा के बीच कई पियानो और ऑरगन स्टोर खोले। इन सालों में मैंने करोड़ों डॉलर कमाए। करोड़ों डॉलर कमाने के बावजूद दिल को सुकून नहीं था। सुकून तो सच्चाई की राह पाकर ही हासिल हो सकता था।
मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि आपके मन में भी यह सवाल उठते होंगे-आखिर ईश्वर ने मुझे किस मकसद के लिए पैदा किया है? ईश्वर को मुझसे किस तरह की अपेक्षा है? आखिर ईश्वर कौन है? हम मूल पाप में यकीन क्यों रखते हैं? इंसान को अपने पाप स्वीकारने के लिए क्यों मजबूर किया जाता है और इसके परिणामस्वरूप उसे सदा के लिए सजा क्यों दी जाती है?
अगर आप किसी से यह सवाल पूछते हैं तो आपसे कहा जाता है कि आपको ऐसे सवाल पूछे बिना अपने धर्म पर यकीन करना चाहिए या यह तो रहस्य है,ऐसे सवाल नहीं किए जाने चाहिए।
ठीक इसी तरह ट्रीनिटी(तसलीस) का सिद्धान्त भी है। अगर मैं किसी धर्मप्रचारक या किसी ईसाई पादरी से पूछता कि-‘एक’ अपने आप में तीन में कैसे बदल सकता है? ईश्वर तो कुछ भी करने की ताकत रखता है तो फिर लोगों के पाप कैसे माफ नहीं कर सकता? उसे जमीन पर एक इंसान के रूप में आकर सभी लोगों के पाप अपने ऊपर लेने की आखिर कहां जरूरत पड़ी? हमें याद रखना चाहिए की वह तो सारे ब्रह्माण्ड का पालक है,वह तो चाहे जैसा कर सकता है।
1991 में एक दिन मुझे यह जानकारी मिली कि मुसलमान बाइबिल पर यकीन रखते हैं। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। आखिर ऐसे कैसे हो सकता है? इतना ही नहीं मुसलमान तो ईसा पर ईमान रखते हैं कि वे ईश्वर के सच्चे पैगम्बर थे और उनकी पैदाइश बिना पिता के अल्लाह के चमत्कार के रूप में हुई। ईसा अब ईश्वर के पास हैं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अंतिम दिनों में फिर से इस जमीन पर आएंगे और एंटीक्राइस्ट(दज्जाल)के खिलाफ ईमान वालों का नेतृत्व करेंगे।
मुझे यह सब जानकर बड़ी हैरत हुई। दरअसल मैं जिन ईसाई पंथ वालों के साथ सफर किया करता था वे इस्लाम और मुसलमानों से सख्त नफरत किया करते थे। वे लोगों के बीच इस्लाम के बारे में झूठी बातें करके लोगों को भ्रमित करते थे। ऐसे में मुझे लगता था कि मुझे इस धर्म के लोगों से आखिर क्या लेना-देना।
मेरे पिता चर्च से जुड़े कामों में जुटे हुए थे, खासतौर पर चर्च के स्कूल प्रोगाम्स में। 1970 में मेरे पिता अधिकृत रूप से पादरी बन गए। मेरे पिता और उनकी पत्नी(मेरी सौतेली मां)बहुत से ईसाई धर्म प्रचारकों को जानते थे। वे अमेरिका में इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन पेट रॉबर्टसन के नजदीकियों में से थे।
1991 में मेरे पिता ने मिस्र के एक मुसलमान शख्स के साथ बिजनेस शुरू किया। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उस शख्स से मिलूं। मैं बड़ा खुश हुआ कि चलो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कामकाज होगा। लेकिन जब मेरे पिता ने मुझे बताया कि वह शख्स मुसलमान है तो पहले तो मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। मैंने कहा-एक मुसलमान से मुलाकात करूं? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मैं नहीं मिलना चाहता किसी मुस्लिम से। हमने इनके बारे में बहुत सी बातें सुनी हैं। ये लोग आतंकवादी होते हैं, हवाई जहाज अगवा करते हैं, बम विस्फोट करते हैं,अपहरण करते हैं और ना जाने क्या-क्या करते हैं। वे ईश्वर में भरोसा नहीं करते। दिन में पांच बार जमीन को चूमते हैं और रेगिस्तान में किसी काले पत्थर की पूजा करते हैं।
मैंने इनसे कह दिया मैं किसी मुसलमान शख्स से नहीं मिल सकता। मेरे पिता ने मुझ से कहा कि वह बहुत अच्छा इंसान है और मुझ पर जोर डाला कि मैं उससे मिलूं। आखिर में मैं उस मुसलमान शख्स से मिलने को तैयार हो गया और शर्त रखी कि मैं सण्डे के दिन चर्च में प्रार्थना करने के बाद ही उससे मिलूंगा। मैंने हमेशा की तरह बाइबिल अपने साथ ली,चमकता क्रॉस गले में लटकाकर उससे मिलने पहुंचा। मेरी टोपी पर ठीक सामने लिखा था-जीसस ही रब है। मेरी पत्नी और दो छोटी बेटियां भी मेरे साथ थीं। अपने पिता के ऑफिस पहुंचकर मैंने उनसे पूछा-कहां है वह मुसलमान? पिता ने सामने बैठे शख्स की ओर इशारा किया। उसे देख मैं परेशानी में पड़ गया। मुसलमान तो ऐसा नहीं हो सकता। मैं तो सोचता था कि लंबे चौगे,दाढ़ी और सिर पर साफे के साथ लंबे कद और बड़ी आंखों वाले शख्स से मुलाकात होगी। इस शख्स के तो दाढ़ी भी नहीं थी। सच बात तो यह है कि उसके सिर पर भी बाल नहीं थे। उसने बड़ी गर्मजोशी और खुशी के साथ मेरा स्वागत किया और मेरे से हाथ मिलाया। मैं तो कुछ समझ नहीं पाया। मैं तो सोचता था कि ये लोग तो आतंकवादी और बम विस्फोट करने वाले होते हैं। मैं तो चक्कर में फंस गया।
मैंने सोचा चलो कोई बात नहीं,मैं इस शख्स पर अभी से काम शुरू कर देता हूं। शायद ईश्वर मेरे जरिए ही इसे नरक की आग से बचाना चाह रहा है। एक दूसरे से परिचय के बाद मैंने उससे पूछा- क्या आप ईश्वर में यकीन रखते हैं? उसने कहा-‘हां’। बहुत अच्छा, फिर मैंने पूछा-आप आदम और हव्वा में विश्वास रखते हैं? उसने कहा-‘हां’। मैंने आगे पूछा-और इब्राहीम के बारे में आपका क्या मानना है? क्या आप उनको मानते हैं? और यह भी कि उन्होंने अपने बेटे को कुरबान करने की कोशिश की? उसने फिर हां में जवाब दिया। इसके बाद मैंने उससे जाना-मूसा को भी मानते हो? उसने फिर हामी भरी। मेरा अगला सवाल था-अन्य पैगम्बरों-दाऊद, सुलेमान,जॉहन आदि को भी मानते हो? उसका जवाब फिर हां में था। मैंने जाना कि क्या तुम बाइबिल पर यकीन रखते हो? उसने हां कहा। अब मैं एक बड़े सवाल पर आया-क्या तुम ईसा को मानते हो? उसने कहा-हां।
यह सब जानकर मुझे उस शख्स को ईसाई बनाने का काम आसान लग रहा था। मुझे लग रहा था,उसे तो अब सिर्फ बपतीशा की विधि की ही जरूरत है और यह काम मेरे जरिए होने वाला है। मैं इसे बड़ी उपलब्धि मान रहा था। एक मुसलमान हाथ में आना और इसे ईसाई धर्म स्वीकार करवाना बड़ा काम था। उसने मेरे साथ चाय पीने की हां भरी तो हम एक चाय की दुकान पर चाय पीने गए। हम वहां बैठकर अपने पसंद के विषय आस्था, विश्वास आदि पर बैठकर घंटों बातें करते रहे। ज्यादा बातें मैंने ही की। उससे बातचीत करने पर मुझे एहसास हुआ कि वह तो बहुत अच्छा आदमी है। वह कम ही बोलता था और शर्मीला भी था। उसने मेरी बात बड़ी तसल्ली से सुनी और बीच में एक बार भी नहीं बोला। मुझे उस शख्स का व्यवहार पसंद आया। मैंने मन ही मन सोचा-यह व्यक्ति तो बहुत अच्छा ईसाई बनने की काबिलियत रखता है। लेकिन भविष्य में क्या होने वाला है, इसकी मुझे थोड़ी सी भनक भी नहीं थी।
मैंने अपने पिता से सहमति जताई और उसके साथ बिजनेस करने के लिए राजी हो गया। मेरे पिता ने मुझे प्रोत्साहित किया और मेरे से कहा कि मैं उस मुस्लिम शख्स को अपने साथ बिजनेस ट्यूर पर उत्तरी टेक्सास ले जाऊं। लगातार कई दिनों तक हमने कार में सफर के दौरान अलग-अलग धर्म और आस्थाओं पर चर्चा की। मैंने उसे रेडियो पर आने वाले इबादत से जुड़े अपने पसंदीदा प्रोग्राम्स के बारे में बताया। मैंने बताया कि इन धार्मिक प्रोग्राम्स में सृष्टि की रचना का उद्देश्य,पैगम्बर और उनके मिशन और ईश्वर अपने मैसेज इंसानों तक कैसे पहुंचाता है, इसकी जानकारी दी जाती है। इन रेडियो प्रोग्राम्स के जरिए कमजोर और आम लोगों तक यह धार्मिक संदेश पहुंच जाते हैं। इस दौरान हम दोनों ने अपने धार्मिक विचार और अनुभवों को एक दूसरे के साथ बांटा।
एक दिन मुझे पता चला कि मेरा यह मुस्लिम दोस्त मुहम्मद अपने मित्र के साथ जहां रह रहा था उस जगह को छोड़ चुका है और अब कुछ दिनों के लिए उसे मस्जिद में रहना पड़ेगा। मैं अपने पिता के पास गया और उनसे कहा कि क्यों न हम मुहम्मद को अपने बड़े घर में अपने साथ रख लें। वह अपने काम में भी हाथ बंटाएगा और अपने हिस्से का खर्चा भी अदा कर देगा। और जब कभी बिजनेस के सिलसिले में बाहर जाएंगे तो हमें हरदम तैयार मिलेगा। मेरे पिता को यह बात जम गई और फिर मुहम्मद हमारे साथ ही रहने लगा।
मैं टेक्सास में अपने साथी धर्मप्रचारकों से मिलने जाया करता था। उनमें से एक टेक्सास मैक्सिको सरहद तथा दूसरा ओकलहोमा सरहद पर रहता था। एक धर्मप्रचारक को तो बहुत बड़ा क्रॉस पसंद था जो उसकी कार से भी बड़ा था। वह उसे कंधे पर रखता और उसका सिरा जमीन पर घसीटते हुए चलता। जब वह उस क्रॉस को लेकर सड़क पर चलता तो कई लोग अपनी गाड़ी रोककर उससे पूछते-क्या चल रहा है? तो वह उन्हें ईसाई धर्म से जुड़ी किताबें और पम्फलेट देता। एक दिन मेरे इस क्रॉस वाले दोस्त को दिल का दौरा पड़ा और उसे हॉस्पिटल में लम्बे समय तक भर्ती रहना पड़ा। मैं हफ्ते में कई बार उस दोस्त से मिलने जाता। साथ में मैं अपने दोस्त मुहम्मद को भी ले जाता और इस बहाने हम अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं का आदान-प्रदान कर लेते। मेरे उस बीमार दोस्त पर इस्लाम का कोई असर नहीं पड़ा, इससे साफ जाहिर था कि इस्लाम के बारे में जानने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। एक दिन उसी अस्पताल में भर्ती एक मरीज व्हील चैयर पर मेरे दोस्त के कमरे में आया। मैं उसके नजदीक गया और मैंने उसका नाम पूछा। वह बोला-नाम कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं है। मैंने उससे जाना कि वह कहां का रहने वाला है, तो वह चिड़कर बोला-मैं तो जूपीटर ग्रह से आया हूं। दरअसल वह अकेला था और अवसाद से पीडि़त था। इस वजह से मैं उसके सामने मालिक की गवाही देने की कोशिश करने लगा। मैंने उसे तौरात में से पैगम्बर यूनुस के बारे में पढ़कर सुनाया। मैंने बताया कि पैगम्बर यूनुस को ईश्वर ने लोगों को सीधी राह दिखाने के लिए भेजा था। यूनुस अपने लोगों को ईश्वर की सीधी राह दिखाने में विफल होकर उस बस्ती से निकल गए। इन लोगों से बचते हुए वे एक कश्ती में जाकर सवार हो गए। तूफान आया कश्ती भी टूटने लगी तो लोगों ने यूनुस को समंदर में फैंक दिया। एक व्हेल मछली पैगम्बर यूनुस को निगल गई। यूनुस मछली के पेट में समंदर में तीन दिन और तीन रात रहे। फिर जब यूनुस ने अपने गुनाह की माफी मांगी तो ईश्वर के आदेश से उस मछली ने उन्हें तट पर उगल दिया और वे अपने शहर निनेवा लौट आए। इस घटना में सबक यह था कि अपनी परेशानियों और बिगड़े हालात से भागना नहीं चाहिए। हम जानते हैं कि हमने क्या किया है और हमसे भी ज्यादा ईश्वर जानता है कि हमने क्या किया है।
इस वाकिए को सुनने के बाद व्हील चैयर पर बैठे उस शख्स ने ऊपर मेरी ओर देखा और मुझसे अपने किए व्यवहार की माफी मांगी। उसने कहा कि वह अपने रूखे व्यवहार से दुखी है और इन्हीं दिनों वह गम्भीर परेशानियों से गुजरा है। उसने कहा वह मेरे सामने अपने पाप कबूल करना चाहता है। मैंने उससे कहा मैं कैथोलिक पादरी नहीं हूं और मैं लोगों के पाप कबूल नहीं करवाता। वह बोला- ‘मैं यह बात जानता हूं। मैं खुद एक रोमन कैथोलिक पादरी हूं।’ यह सुनकर मैं भौंचक्का रह गया। क्या मैं एक पादरी को ही ईसाई धर्म के उपदेश दे रहा था? मैं सोच में पड़ गया आखिर इस दुनिया में यह क्या हो रहा है। उस पादरी ने अपनी कहानी सुनाई। उसने बताया कि मैक्सिको और न्यूयॉर्क में वह बारह साल तक ईसाई प्रचारक के रूप में काम कर चुका है और यहां उसका अनुभव पीड़ादायक रहा। अस्पताल से छुट्टी के बाद उस ईसाई पादरी को ऐसी जगह की जरूरत थी जहां वह तंदुरुस्ती हासिल कर सके। मैंने अपने पिता से कहा कि उसे अपने यहां रहने के लिए कहना चाहिए कि वह भी हमारे साथ रहे। हम इस पर सहमत हो गए और वह भी हमारे साथ रहने लगा। मेरी उस ईसाई पादरी से भी इस्लाम की धारणाओं और मान्यताओं पर बातचीत हुई तो उसने इस पर अपनी सहमति जताई। उसकी सहमति पर मुझे ताज्जुब हुआ। उस पादरी से मुझे यह जानकर भी हैरत हुई कि कैथोलिक पादरी इस्लाम का अध्ययन करते हैं और कुछ ने तो इस्लाम में डॉक्टरेट की उपाधि भी ले रखी है।
हम हर शाम खाने के बाद टेबल पर बैठकर धर्म की चर्चा करते। चर्चा के दौरान मेरे पिता के पास किंग जेम्स की अधिकृत बाइबिल होती,मेरे पास बाइबिल का संशोधित स्टैडण्र्ड वर्जन होता, मेरी पत्नी के पास बाइबिल का तीसरा रूप और कैथोलिक पादरी के पास कैथोलिक बाइबिल, जिसमें प्रोटेस्टेंट बाइबिल से सात पुस्तकें ज्यादा है। हमारा वक्त इसमें गुजरता कि किसकी बाइबिल ज्यादा सत्य और सही है और फिर हम मुहम्मद को बाइबिल का संदेश देकर उसे ईसाई बनाने की कोशिश करते।
एक बार मैंने मुहम्मद से कुरआन के बारे में जाना कि पिछले चौदह सौ सालों में कुरआन के कितने रूप बन चुके हैं? उसने मुझे बताया कि कुरआन सिर्फ एक ही रूप में है और उसमें कभी कोई फेरबदल नहीं हुआ। उसने मुझे यह भी बताया कि कुरआन को दुनियाभर में लाखों लोग कंठस्थ याद करते हैं और कुरआन को जबानी याद रखने वाले लाखों लोग दुनियाभर में फैले हुए हैं। मुझे यह असंभव बात लगी। ऐसे कैसे हो सकता है? बाइबिल को देखो सैकड़ों सालों से इसकी मौलिक भाषा ही मर गई। सैंकड़ों साल के काल में इसकी मूल प्रति ही खो गई। फिर भला ऐसे कैसे हो सकता है कि कुरआन असली रूप में अभी भी मौजूद हो।
एक बार हमारे घर रह रहे कैथोलिक पादरी ने मुहम्मद से कहा कि वह उसके साथ मस्जिद जाना चाहता है और देखना चाहता है कि मस्जिद कैसी होती है। एक दिन वे दोनों मस्जिद गए। वापस आए तो वे मस्जिद के अपने अनुभव बांट रहे थे। हम भी पादरी से पूछे बगैर नहीं रह सके कि मस्जिद कैसी थी और वहां क्या-क्या विधियां कराई गईं? पादरी ने जवाब दिया-ऐसा कुछ नहीं किया गया जैसा तुम समझ रहे हो। मुस्लिम आए,नमाज पढ़ी और चले गए। ‘चले गए,ऐसे ही चले गए? बिना कोई भाषण और गाने के ही चले गए?’ उसने कहा-हां,ऐसा ही था उनकी इबादत का तरीका।
कुछ दिन और गुजरने के बाद एक दिन कैथोलिक पादरी ने मुहम्मद से कहा कि वह एक बार और उसके साथ मस्जिद जाना चाहता है। लेकिन इस बार तो कुछ अलग ही हुआ। वे काफी देर तक घर नहीं लौटे। अंधेरा हो गया तो हमें उनकी चिंता होने लगी। कहीं उनके साथ कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई है? वे दोनों आए, दरवाजे में मैंने मुहम्मद को तो पहचान लिया लेकिन साथ आने वाले को एकदम से नहीं पहचान पाया। वह सफेद लंबा चौगा और सिर पर सफेद टोपी लगाए था। अरे,यह तो पादरी है? मैंने उससे पूछा-‘पेटे, क्या तुम मुसलमान बन गए हो?’ उसने कहा-हां, आज मैंने इस्लाम अपना लिया है।
क्या एक पादरी मुसलमान बन गया?
इसके बाद मैं ऊपर के कमरे में गया और इस मुद्दे पर अपनी पत्नी से बात की। मेरी पत्नी ने मुझे बताया कि वह भी जल्दी ही इस्लाम अपनाने जा रही है, क्योंकि वह इस नतीजे पर पहुंची है कि इस्लाम सच्चा धर्म है। यह जानकर मुझे तगड़ा झटका लगा। मैंने नीचे आकर मुहम्मद को जगाया और उसे बाहर आकर मेरे साथ चर्चा करने को कहा। हम दोनों रात भर टहलते रहे और इस्लाम पर चर्चा करते रहे। फज्र की नमाज का वक्त हो गया था। अब तक मैं जान चुका था कि इस्लाम सत्य है और अब मुझे इस मामले में अपनी भूमिका निभानी है। मैं पीछे की तरफ अपने पिता के घर गया। वहां एक पलाई का टुकड़ा पड़ा था। मैंने उसी पलाई के टुकड़े पर अपना माथा रख दिया। मेरा मुंह उस दिशा में था जिस तरफ मुंह करके मुसलमान नमाज पढ़ते हैं। मेरा बदन पलाई पर फैला था और मेरा ललाट जमीन पर टिका था। मैंने उसी स्थिति में सच्चे ईश्वर से प्रार्थना की- ‘है ईश्वर अगर तुम यहां है तो मेरा मार्गदर्शन कर, मुझे सच्ची राह पर ले चल।’ थोड़ी देर बाद मैंने अपना सिर उठाया तो मैंने कुछ खास महसूस किया। नहीं,नहीं मैंने चिडिय़ा या फरिश्तों को आसमान से आते हुए नहीं देखा। ना मैंने किसी तरह की आवाज सुनी और ना कोई संगीत। ना ही मैंने कोई तेज रोशनी देखी या रोशनी की कोई झलक। जो कुछ मैंने महसूस किया वह था मेरे अंदर हुआ बदलाव। मैंने खुद के अंदर बदलाव महसूस किया। अब मैं ज्यादा जागरूक हो गया था कि अब समय आ गया है कि मैं झूठ बोलना, धोखा देना और झूठ पर आधारित बिजनेस बंद कर दूं। अब समय आ गया है कि मैं अपने आपको सीधा, नेक और ईमानदार इंसान बनाने के काम में लग जाऊं। अब मेरी समझ में आ गया था कि मुझे अब क्या करना है। मैं ऊपर गया और फंव्वारे के नीचे बैठ नहाने लगा, इस सोच के साथ कि अब मैं अपने पुराने सभी गुनाह धो रहा हूं। और अब एक नई जिंदगी में दाखिल हो रहा हूं। एक ऐसी जिंदगी जिसका आधार सच्चाई है और जिसे किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। सुबह ग्यारह बजे दो गवाहों एक पूर्व पादरी फादर पीटर जेकब (जो अब मुसलमान हो चुका था) और मुहम्मद अब्दुल रहमान की उपस्थिति में मैंने इस्लाम का कलमा ए शहादत पढ़ लिया। खुली गवाही दी कि अल्लाह एक ही है और मुहम्मद(स.अ.व.)अल्लाह के पैगम्बर हैं। कुछ देर बाद ही मेरी पत्नी ने भी इस्लाम का कलमा पढ़ लिया। उसने तीन गवाहों के सामने कलमा पढ़ा। तीसरा मैं था।
मेरे पिता थोड़े संकोची स्वभाव के थे, इस वजह से उन्होंने कुछ महीने बाद इस्लाम कबूल किया लेकिन उसके बाद उन्होंने अपनी सारी ताकत और सामथ्र्य इस्लाम के लिए लगा दी। फिर तो हम अन्य मुसलमानों के साथ स्थानीय मस्जिद में नमाज अदा करने लगे।
मैंने बच्चों को भी ईसाई स्कूलों से हटाकर मुस्लिम स्कूलों में दाखिल करा दिया। इन दस सालों में बच्चे कुरआन और इस्लामी शिक्षा को याद करने में जुटे हैं।
सबसे बाद में मेरे पिता की पत्नी (मेरी सौतेली मां) ने इस बात को स्वीकार किया कि ईसा ईश्वर का बेटा नहीं हो सकता। ईसा तो ईश्वर का पैगम्बर था, ईश्वर नहीं था।
अब आप थोड़ा गौर करें और सोचें कि कैसे अलग-अलग पृष्ठभूमियों और पंथ वालों ने सत्य को अपनाया और यह जानने की कोशिश की कि किस तरह सृष्टि के रचयिता और अपने पालनहार को जाना जाए। आप जरा सोचिए तो सही। एक कैथोलिक पादरी। एक चर्च संगीतकार और पादरी। एक अधिकृत पादरी और ईसाई स्कूलों का संस्थापक। सब एक साथ मुसलमान हो गए। यह तो ईश्वर की मेहरबानी ही है कि हमारी आंखों से परदा हटा और इस्लाम रूपी सत्य को देखने के लिए ईश्वर ने हमारा मार्गदर्शन किया।
अगर मैं अपने जीवन की कहानी को यहीं पूरी कर दूं तो आपको लगेगा कि यह कहानी तो चकित करने वाली है। आश्चर्य वाली बात ही है कि तीन अलग-अलग पंथों के पादरियों ने अपने धर्म के एकदम खिलाफ माने जाने वाली मान्यताओं और विचारों को अपनाया। और उन्होंने ही नहीं बाद में उनके परिवार वालों ने भी इस्लाम अपनाया।
लेकिन बात अभी पूरी नहीं हुई। और भी है। उसी साल मैं टेक्सास के ग्रांड प्रेयरी स्थान पर था। वहां पर मेरी मुलाकात जोय नाम के बेपटिस्ट सेमीनारी के एक विद्यार्थी से हुई जिसने पादरियों को शिक्षा देने वाली संस्था सेमीनारी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान कुरआन का अध्ययन किया और इस्लाम अपना लिया। और भी कई ऐसे लोग हैं। मुझे एक और कैथोलिक पादरी याद आ रहा है जो इस्लाम की अच्छाइयां इतनी ज्यादा बयान करता था कि एक दिन मैं उससे पूछ बैठा-आप इस्लाम में दाखिल क्यों नहीं हो जाते? उसका जवाब था-क्या? मैं अपनी नौकरी खो दूं? उसका नाम है-फादर जॉन और मुझे अब भी उससे उम्मीद है। इसी साल मेरी एक और पूर्व कैथोलिक पादरी से मुलाकात हुई जो पिछले आठ सालों से अफ्रीका में ईसाई धर्म प्रचारक था। उसने इस्लाम के बारे में वहीं सीखा और फिर इस्लाम कबूल कर लिया। उसने अपना नाम उमर रखा और अभी वह डलास टैक्सास में रहता है।
इस्लाम अपनाने के बाद जब मैं एक प्रचारक के रूप में दुनियाभर में घूमा तो मेरी कई राजनीतिज्ञ, प्रोफेसर,दूसरे धर्मों के विद्वान और वैज्ञानिकों से मुलाकात हुई जिन्होंने इस्लाम धर्म का अध्ययन किया और फिर मुसलमान हो गए। इन लोगों में यहूदी,हिंदू,कैथोलक,प्रोटेस्टेंट,जहोवाज,विटनेसेस,ग्रीक और रसियन रूढि़वादी चर्च,मिश्र के कॉप्टिक ईसाई और नास्तिक लोग शामिल हैं।
जो शख्स सच की तलाश में है उसे इन नौ बातों पर गौर करना चाहिए-
1 अपने दिल,दिमाग और आत्मा को वास्तविक भलाई के लिए पवित्र करो। साफ रखो।
2 हर तरह के पूर्वाग्रह और भेदभाव को अपने दिल और दिमाग से निकाल दो।
3 जो भाषा आप अच्छी तरह से जानते हैं उस भाषा में अनुवादक किया गया कुरआन पढ़ो।
4 थोड़ा रुको,ठहरो।
5 गौर फिक्र-चिंतन करो।
6 सोचो और ईश्वर से प्रार्थना करो।
7 जिस सर्वशक्तिमान ने आपको बनाया है, उससे दिल से प्रार्थना करो कि वह आपको सत्य तक पहुंचाने में आपका मार्गदर्शन करे। आपको सच्ची राह दिखाए।
8 कुछ महीनों तक इस अभ्यास को जारी रखें और नियमानुसार इसे रोजाना करें।
9 जब आपको लगे कि आपकी आत्मा एक नए रूप में करवट ले रही है। आपको लगे मानो आप एक नए रूप में जन्म ले रहे हैं तो ऐसे में ऐसे लोगों से बचें जिनकी सोच में जहर भरा हो जो आपको गुमराह कर सकते हैं।
अब आपका मामला आपके और इस ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान मालिक के बीच है। अगर आप वाकई में सच्चे ईश्वर से सच्चा प्रेम करते हैं तो वह इस बात से अंजान नहीं है क्योंकि वह तो दिलों तक की बात जानने वाला है। और वह उसी हिसाब से आपका मामला तय करेगा जो आपके दिल में है।
ईश्वर से दुआ है कि वह आपको सच्ची राह दिखाने में आपका मार्गदर्शन करे। वह इस जगत की सच्चाई और जिंदगी का मकसद जानने के लिए आपके दिल और दिमाग को खोले। आमीन
आपका दोस्त
यूसुफ एस्टीज
यूसुफ एस्टीज की ऑफिसियल वेबसाइट-www.islamtomorrow.com
युसूफ साहब भारत के एक इस्लामिक टी वी चैनेल पीस टीवी पर भी आतें हैं